Tuesday, May 25, 2010

यातायात और हम

मैं बहुत सालों बाद हिन्दी में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं अपनी मातृभाषा से दूर हो गया था पर आखिरी कुछ सालों में हिन्दी लिखने की जरूरत नहीं पड़ी। और अब जब मैं हिन्दी में अपने भावों को अभिव्यक्त कर रहा हूँ तो उसमें भी स्वार्थ छुपा है – मैं इस विचार के माध्यम से अधिसंख्य लोगों से जुड़ना चाहता हूँ।


कुछ दो हफ्ते पहले मैं राँची मे था। झारखंड की राजधानी ने अभी तक वो सुखद दिन देखे ही नहीं जिसकी वो हकदार है हालांकि राजधानी बनने के बाद यहाँ प्रगति की लहर जरूर उठी थी पर लगता है अब वो थम सी गयी है। लेकिन मैं जो कहने जा रहा हूँ वो सिर्फ रांची तक ही सीमित नहीं है – राँची में हुए अनुभवों ने सिर्फ इस आलेख को लिखने कि प्रेरणा दी है


जैसे ही मैं राँची रेल्वे स्टेशन से बाहर निकला, मुझे घेर लिया गया – ‘टैक्सी चाहिए क्या?’, ‘ऑटो?’, ‘रिक्शा लगेगा साहेब?’, ‘कहाँ जाना है?’ रेल के माध्यम से मैं राँची काफी लंबे अंतराल के बाद आया था जब मेरे पिताजी यहाँ नियुक्त थे तब हमेशा आना जाना लगा रहता था पर इस बार तो मैं राँची ही एक साल के बाद आया था मैंने तुरंत अपने मौसाजी को फोन लगया – ‘कचहरी का ऑटो ले लो। दस रुपए लगेंगे। फिर तो तुम्हें पता है’पर कोई भी ऑटो बीस रुपए से कम मे जाने को तैयार नहीं था। और हाँ, एक और नियम है - जब तक ऑटो पूरी तरीके से भर नहीं जाये (मतलब कि ओवरलोडेड ना हो जाये) कोई भी ऑटो एक इंच नहीं हिलेगा। जब मैं अपनी मौसी के घर पहुँचा तो पहले कुछ शब्द इस प्रकार थे – ‘यहाँ की यातायात व्यवस्था तो बदतर हो गई है’ जवाब मिला – ‘सरकार नहीं है तुम यातायात कि बात कर रहे हो? जंगल राज में स्वागत है।’


मुझे समझ जाना चाहिए था कि उस दिन सुबह यातायात कि जो छवि मुझे मिली वो सिर्फ ट्रेलर मात्र था। पूरी फिल्म तो अभी बाकी थी शाम के वक्त मैं अपने माता पिता के साथ खरीदारी करने निकला। मैंने अपना प्लान माता पिता के साथ मिल कर बनाया था – तय हुआ था की जिस दिन मैं पहुंचुंगा उसी दिन वे भी राँची आ जाएँगे ताकि उनसे भी मिलना हो जाएगा। खैर, हमलोग राँची के मेन रोड की दुकानों मे खरीदारी करते रहे और समय का पता ही नहीं चला रात के 9 बज गए थे पर मेन रोड पर चहल पहल थी। हमने सोचा की कचहरी से हमें आराम से सवारी मिल जाएगी – पर जब कचहरी पहुँचे तो पूरा ऑटो स्टैंड खाली थोड़ा आगे रातू रोड के स्टैंड पर भी हमारे गंतव्य के लिए ऑटो नहीं मिल रहा था ‘रिजर्व पर जाएँगे। 100 रुपये लगेंगे।’सबकी अपनी मनमानी है हो भी क्यूँ ना? भई, अब उनके अलावा कोई और तो है नहीं जो आपको आपके घर तक पहुँचा दे। आपको लग सकता है कि 100 रुपये की ही तो बात थी – परेशान होने से अच्छा था दे देते। मेरा तर्क है कि अगर हम इस तरह की मनमानी को बढ़ावा देंगे तो कभी यह उल्टा हमपर ही भारी पर सकता है फिर मैं उस समय सक्षम था पर यह भी संभव है कि इस परिस्थिति में कोई असक्षम व्यक्ति भी फँस जाये खैर, बहुत कोशिश के बाद हमें रिक्शे मिल गए जो हमें हमारे गंतव्य तक ले गए


उपरोक्त घटना उस रूट की है जहाँ नियमित रूप से अनेक सवारी आपको मिल जाएगी यह रूट राँची का समझिए राजमार्ग है जब उस रूट पर वो हाल था, तो उन स्थानों का सोचिए जहाँ नियमित रूट निर्धारित नहीं है। अगले दिन हम इस परिस्थिति से भी रूबरू हो गए इस बार बारी रिक्शे वालों की थी – कुछ किलोमीटर की दूरी के लिए 100 रुपये मुझे कुछ ज्यादा लगे। काफी रिक्शेवालों से मोल-भाव करने के बाद हमें एक सवारी मिली पर फिर भी वो महंगी थी। मेरी परेशानी भारे से नहीं है। भारा परिणाम है, समस्या नहीं। समस्या है ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट (सार्वजनिक यातायात)’ का अविकसित होना। मैंने अपने रिश्तेदारों के सामने यह बात रखी। मेरे मामा ने मुझे बताया की यातायात व्यवस्था सुदृंद करने के लिए बसें खरीदी हुई हैं बस उसे चलाने के लिए कोई पहल नहीं की गई है। जब राजधानी में यह हालात हैं तो राज्य के अन्य शहरों एवं गाँवों मे मौजूद व्यवस्था का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। और यह सिर्फ झारखंड की समस्या नहीं है। देशभर के अनेक शहरों की यातायात व्यवस्था लचर है।


मेरे जन्मस्थान पटना को ही ले लें। पिछले पाँच वर्षों मे पटना वापस विकास के पथ पर आया है – और विकास की गति भी काफी ठीक है। पटना फैल रहा है – सड़कें चौड़ी हो रही हैं पर आज आम आदमी जाम में ज्यादा फँसता है। किसी भी दिन का अख़बार उठा लीजिए – जाम की खबर तो मिल ही जाएगी; साथ में छपा होगा गाड़ियों की लंबी कतारों का एक चित्र। हरेक पखवाड़े यातायात पुलिस के तरफ से एक वक्तव्य आएगा – ‘हम पटना को जाम-मुक्त कराने के लिए प्रयत्नरत हैं’। समस्या इतनी भयावह होती जा रही है की व्यापारियों एवं पुलिस की बैठक में यातायात मुख्य मुद्दा होता है – कानून व्यवस्था नहीं। कुछ समय पूर्व तक ‘लॉं एंड ऑर्डर’ के लिए बदनाम रहे बिहार के लिए यह एक सुखद अनुभव हो सकता है पर इससे समस्या की गंभीरता कम नहीं होती।


पटना के इस हालात का यदि विश्लेषण किया जाये तो कुछ बातें उभर कर सामने आती हैं –
१) पटना में गाड़ियों की संख्या में तेजी से बदोतरी हुई है – ज्यादा गाडियाँ अगर सड़कों पर आएंगी तो जाम की संभावना तो ज्यादा होगी ही।
२) सड़कें चौड़ी हुई हैं तो अतिक्रमण भी बढ़ा है – उच्च न्यायालय के लगातार निर्देश पर भी अतिक्रमण हटाने के लिए कोई विशेष कार्यवाई नहीं की गयी। नगर निगम जिला प्रशासन को दोष देता है और जिला प्रशासन नगर निगम को।
३) ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ लचर है- शहर के नागरिकों के लिए सिर्फ ऑटो और रिक्शे हैं। बसें सिर्फ नाम मात्र की हैं और उसमे भी अधिकतर खटारा हो चुकी हैं। एक दिन अगर ऑटो चालकों ने बंध का आयोजन कर दिया तो पटना स्थिल हो जाता है। जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण योजना के तहत 100 लो फ़्लोर की बसें पिछले वर्ष तक ही आ जानी थी – उनका अभी तक कोई पता नहीं चल है। शहर में मेट्रो चलाने की बात है; रिंग रोड बनाने की बात है; मरीन ड्राइव की तर्ज़ पर एक एलेवटेड कॉरिडोर भी बनाने की खबर है – पर सब कुछ फाइलों में ही सीमित है।


आप चाहें तो इनमें अन्य कई कारण भी जोड़ सकते हैं। पर मुझे लगता है की सबसे बड़ी समस्या ‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट’ ही है। एक प्रभावी यातायात व्यवस्था के अभाव में मज़बूरन अनेक यात्रियों को अपने निजी वाहनों का प्रयोग करना पड़ता है। फिर अतिक्रमण तो है ही। इसपर तड़का लगता है ‘पार्किंग स्थल’ की कमी का और तैयार हो जाता है एक प्रभावकारी जाम जो हर रोज़ पटनावासियों को परेशान करता है। और इन सभी का प्रमुख कारण है दूरदृष्टि की कमी – खास तौर पर उनके द्वारा जो हमारे लिए योजना बनाते हैं। क्या यह इतना कठिन है? किसी भी समस्या पर हमारा कदम प्रतिक्रियात्मक होता है। नतीजा यह होता है की जब तक हम एक समस्या का निदान करते हैं दूसरी समस्याएँ दरवाजे पर दस्तक दे रही होती हैं। और यह हाल हमारे हरेक शहर का है- चाहे वो छोटा हो या फिर बड़ा।


कलकत्ता को ही ले ले जहाँ मैं पिछले कुछ वर्षों से रह रहा हूँ। यहाँ आपको यातायात के वो साधन भी मिल जाएँगे जो भारत में कहीं और नहीं मिलेंगे जैसे कि ट्राम और हाथ-रिक्शा। फिर यहाँ बसें हैं, मेट्रो हैं, टॅक्सी हैं, ऑटो हैं और कहीं कहीं आपको पेडल-रिक्शा भी मिल जाएँगे। पर यहाँ भी सब कुछ ठीक नहीं हैं।


१) ज्यादातर बसें अभी भी खटारा हैं। जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीनीकरण योजना के तहत मंगाई गयी कुछ बसों से हालांकि स्थिति मे बदलाव जरूर आया है। बसों के ड्राईवर ‘रैश ड्राइविंग’के आदि हो चुके हैं। आम राहगीर की जान पहले से ज्यादा सस्ती है अभी।
२) आपको हावड़ा जाना है। आपको मिनी-बस मे उठने से मना कर दिया जाता है क्यूंकि आपके पास सामान है – मतलब अब ट्रेन से सफर करना हो तो या सामान लेकर मत जाओ या फिर स्टेशन के लिए कोई और सवारी ढूंढ लो।
३) चलिये बस ना मिला टॅक्सी ही सही – लेकिन कलकत्ता के टॅक्सीवालें भी इतनी आसानी से मानने वाले नहीं हैं जनाब। उनकी अपनी मर्ज़ी है- कहाँ जाना है, कब जाना है, कितने मे जाना हैं सब उनपर है। अगर आप गलत जगह फंस गए तो 100 के जगह 300 रुपये भी देने पड़ सकते हैं। और मीटर की तो बात न ही करें तो अच्छा है। पश्चिम बंगाल सरकार ने खुद माना है की ज्यादातर टॅक्सी के मीटर खराब हैं।
४) अब टॅक्सी की बात उठ ही गयी है तो हावड़ा मे मौजूद प्री-पेड टॅक्सी स्टैंड की बात कर लेते हैं। पर यहाँ से टॅक्सी लेने के बावजूद आप पूरी टॅक्सी पर अपना आधिपत्य मत समझिए – भई, टॅक्सी तो ड्राईवर की ही हैं ना। वो पूरी कोशिश करेगा की कोई और सवारी भी मिल जाये- आपके प्रतिरोध पर वो समझाने की कोशिश करेगा कि महंगाई का जमाना है और अगर आप ‘एडजस्ट’ कर लेंगे तो अच्छा रहेगा। फिर हरेक स्टेशन कि तरह यहाँ पर भी आपको कई टॅक्सी ड्राईवर (प्री पेड वालों कि बात नहीं कर रहा हूँ) मिल जाएँगे जो आपको ठगने का पूरा मन बना कर रखते हैं।
५) ऑटो और ओवेरलोडिंग का तो जन्म-जनमान्तर का साथ है – इसलिए मैं इस पर टिप्पणी नहीं करूँगा। पर ‘हाथ-रिक्शा’ पर अवश्य कुछ कहना चाहूँगा – ‘दो बीघा जमीन’ सन 1953 में प्रदर्शित हुई थी। इस फिल्म मे बलराज साहनी ने ‘हाथ-रिक्शा’ को एक पहचान दी थी – बेबसी की। आज 57 साल बाद भी हम कलकत्ता को इस ‘बेबसी’ से आजाद नहीं करा पाये तो इसका जिम्मेदार कौन है?


आपने ध्यान दिया होगा कि इस लेख में अब तक मैंने सिर्फ दुखड़ा रोया है – कुछ नया नहीं बताया है। ना ही मैंने कुछ ऐसा कहा है जिससे इन समस्याओं का हल निकालने में कोई मदद मिले। पर इतना सब लिखने के बाद भी मुझे लगता है कि इन सभी समस्याओं का मूल कारण हम हैं। ऑटो ओवेरलोड होते हैं क्यूंकि हम ऐसा करने देते हैं; टॅक्सीवाले ज्यादा भाड़ा माँगते हैं क्यूंकि हम ज्यादा देते हैं; जाम लगने का कारण भी हम ही हैं- कभी गलत जगह पार्किंग करेंगे तो कभी सिग्नल की अनदेखी। लोग कहेंगे की मजबूरी है इसलिए करना पड़ता है – मैं मानता हूँ पर इस मजबूरी में किए गए समझौतों में हमने अपने हित की अनदेखी कर दी।


और ज्यादा अफ़सोस इस बात का है कि यातायात समस्या से हमें निजात न दिला पाने की प्रशासनिक विफलता पर भी हम प्रभावी जन-प्रतिक्रिया में असक्षम साबित हुए हैं। मुंबई में ‘सी-लिंक’बनने मे एक दशक से ऊपर लग जाता है और उसके उदघाटन पर हम सिर्फ तालियाँ बजाते हैं – यह प्रश्न नहीं करते कि इतना समय क्यूँ लगा? पटना में एक रेल्वे ओवरब्रिज पिछले 4 वर्षों से बन रहा है और हम धैर्य से उसके बनने का इंतेजार कर रहे हैं। सभी बड़े शहरों में ‘त्वरित यातायात माध्यम’ विकसित किए जाने के लिए क्या पहल कि जा रही है, प्रशासन से इसका जवाब भी नहीं माँगते।


अगर हम (प्रशासन और आम नागरिक) आज नहीं जागे तो भविष्य में यातायात एक बहुत बड़ी परेशानी बन कर उभरेगा। अभी भी समय है - जरूरत है दूरदर्शी सोच की और सच्चे प्रयास की।